Tuesday, January 10, 2017

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 – Indian Contract Act 1872

किसी राज्य अथवा सरकार द्वारा सामाजिक व्यवस्था को सुचारुरुप से संचालित करने हेतु तथा मानवीय आचरण एवं व्यवहारों को व्यवस्थित तथा क्रियान्वित करने के उद्देश्य से जो नियम बनाये जाते हैं , उन्हें ‘सन्नियम’ या राजनियम कहा जाता है। सालमण्ड (Salmond) के अनुसार,
सन्नियम या राजनियम से आशय राज्य द्वारा स्वीकृत एवं प्रवर्तित उन सिद्धान्तों के समूह से हैं जिनका उपयोग उसकेद्वारा न्याय प्रशासन के लिए किया जाता है।
व्यापारिक सन्नियम में उन अधिनियमों को सम्मिलित किया जाता है जो व्यवसाय एवं वाणिज्यिक क्रियाओं के नियमन एवं नियन्त्रण के लिए बनाये जाते हैं । ए. के. सेन के अनुसार,
“व्यापारिक या व्यावसायिक सन्नियम के अन्तर्गत वे राजनियम आते हैं जो व्यापारियों, बैंकर्स तथा व्यवसायियों के साधारण व्यवहारों से सम्बन्धित हैं और जो सम्पत्ति के अधिकारों एवं वाणिज्य में संलग्न व्यक्तियों से सम्बन्ध रखते हैं।
भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, व्यापारिक अथवा व्यावसायिक सन्नियम की एक महत्वपूर्ण शाखा है, क्योंकि अधिकांश व्यापारिक व्यवहार चाहे वे साधारण व्यक्तियों द्वारा किये जायें या व्यवसायियों द्वारा किये जायें , ‘संविदा’ पर ही आधारित होते हैं। भारतीय संविदा अधिनियम 25 अप्रैल, 1872 को पारित किया गया था और 1 सितम्बर, 1872 से लागू हुआ था।
भारतीय संविदा अधिनियम को दो भागों में बांटा जा सकता है। इसमें प्रथम भाग में धारा 1 से 75 तक है जो संविदा के सामान्य सिद्धान्तों से सम्बन्धित हैं और सभी प्रकार की संविदाओं पर लागू होती हैं। द्वितीय भाग में धारा 76 से 266 तक है जो विशिष्ट प्रकार की संविदाओं जैसे वस्तुविक्रय, क्षतिपूर्ति एवं गारण्टी, निक्षेप, गिरवी, एजेन्सी तथा साझेदारी से सम्बन्धित हैं । 1930 में वस्तुविक्रय से सम्बन्धित धाराओं को निरस्त करके पृथक से वस्तु विक्रय अधिनियम बनाया गया है । इसी प्रकार 1932 में साझेदारी संविदाओं से सम्बन्धित धाराओं को इस अधिनियम में से निरस्त कर दिया गया और पृथक साझेदारी अधिनियम बनाया गया ।

आधारभूत परिभाषाएँ – Basic Definitions

इस अधिनियम की धारा 2 में इन आधारभूत शब्दों को परिभाषित किया गया है:-
  • (1) प्रस्ताव (Proposal): जब एक व्यक्ति किसी दूसरेव्यक्ति के सम्मुख किसी काम को करनेअथवा न करने के सम्बन्ध में अपना विचार इस उद्देश्य से प्रकट करता है कि उस व्यक्ति की सहमति उस कार्य को करनेअथवा न करने के सम्बन्ध में प्राप्त हो जाये, तो कहा जाता है कि पहले व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति के सम्मुख प्रस्ताव किया है। [ धारा 2 (a) ]
  • (2) वचन (Promise): वह व्यक्ति जिसकेसम्मुख प्रस्ताव किया गया है, उसके प्रति अपनी सहमति दे देता है, तो प्रस्ताव स्वीकृत समझा जाता है। एक प्रस्ताव जब स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह वचन (Promises) कहलाता है। [धारा 2 (b)]
  • (3) वचनदाता एवं वचनग्रहीता(Promisor and Promises) : प्रस्ताव करने वाले व्यक्ति को प्रस्तावक अथवा प्रतिज्ञाकर्ता अथवा वचनदाता कहते हैं तथा उस प्रस्ताव को स्वीकार करने वाले व्यक्ति को वचनग्रहीता अथवा स्वीकर्ता कहते हैं। [धारा 2(c)]
  • (4) प्रतिफल(Consideration) : जब वचनदाता की इच्छा पर वचनग्रहीता अथवा किसी अन्य व्यक्ति ने कोई कार्य किया है अथवा करने से विरत रहा है; अथवा कोई कार्य करता है अथवा करने से विरत रहता है; अथवा कोई कार्य करने अथवा विरत रहनेका वचन देता है तो ऐसा कार्य या विरति या वचन उस वचन का प्रतिफल कहलाता है। [धारा 2 (d)]
  • (5) करार(Agreement) : प्रत्येक वचन या वचनों का प्रत्येक समूह जो एक दूसरेका प्रतिफल हो, करार कहलाता है। [धारा 2(e)]
  • (6) पारस्परिक वचन(Reciprocal Promises) : ऐसे वचन जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल अथवा आंशिक प्रतिफल होतेहैं , पारस्परिक वचन कहलातेहैं । [धारा 2 (f)]
  • (7) अवैध करार(Void Agreement) : वह करार जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय नही होता है, अवेध करार कहलाता है। [धारा 2 (g)]
  • (8) संविदा(Contract) :एक ऐसा करार जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय हो ‘संविदा’ कहलाता है। [धारा 2(h)]
  • (9) अवैधनीय संविदा(Voidable Contract) : ऐसा करार जो उसकेएक या अधिक पक्षकारों की इच्छा पर प्रवर्तनीय हो, किन्तु दूसरे पक्षकार या पक्षकारों की इच्छा पर प्रवर्तनीय नहीं होता है, अवैधनीय संविदा कहलाता है। [धारा 2(i)]
  • (10) अवैध संविदा(Void Contract) : एक संविदा जब वह राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हो पाता है, उस समय व्यर्थ हो जाता है, जब वह इस प्रकार प्रवर्तनीय नही हो पाता है। [धारा 2(j)]
संविदा का अर्थ एवं परिभाषा
संविदा (Contract) शब्द की उत्पति लेटिन शब्द कॉन्ट्रैक्टम (Contracturm) से हुई है, जिसका अर्थ है ‘आपस में मिलाना’ । सामान्य शब्दों में संविदा से आशय दो या अधिक व्यक्तियों को किसी कार्य को करने अथवा न करने हेतु आपस में मिलाने वाले समझौते अथवा करार से है। वैधानिक दृष्टिकोण से संविदा का अर्थ विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है। संविदा की प्रमुख परिभाषायें निम्न प्रकार है :
(1) न्यायाधीश सालमण्ड (Salmond) के अनुसार, संविदा एक ऐसा करार है जो पक्षकारों के बीच दायित्व उत्पन्न करता हैऔर उनकी व्याख्या करता है।
इस परिभाषा का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि संविदा में दो या अधिक पक्षकार होते हैं ; पक्षकारों के बीच एक करार या समझौता होता है; इस करार से पक्षकारों के मध्य दायित्व उत्पन्न होता है और यह करार पक्षकारों के दायित्वों की व्याख्या करता है।
(2) सर विलियम एन्सन (Sir William Anson) के अनुसार, संविदा दो या दो से अधिक पक्षकारों के बीच किया गया ऐसा करार है जिसको राजनियम द्वारा प्रवर्तित कराया जा सकता है तथा जिसके अन्तर्गत एक या अधिक पक्षकारों को दूसरे पक्षकार या पक्षकारों के विरुद्ध कुछ अधिकार प्राप्त हो जाते हैं।
सर विलियम एन्सन की परिभाषा की व्याख्या करने से स्पष्ट होता है कि संविदा एक करार होता है जिसमें दो या दो से अधिक पक्षकार होते हैं और यह करार राजनियम के प्रावधानों के अधीन प्रवर्तनीय कराया जाता है। इस करार के आधीन पक्षकारों को किसी कार्य को करने अथवा न करने के बारे में , एक दूसरे के विरुद्ध कुछ वैधानिक अधिकार प्राप्त होते हैं।
(3) लीक (Leake) के अनुसार संविदा वैधानिक संविदा‘ होने की दृष्टि से ऐसा करार है जिसकेद्वारा एक पक्षकार कुछ निष्पादन करने के लिए बाध्य होगा और जिसको प्रवर्तित करानेका दूसरे पक्षकार को वैधानिक अधिकार होगा।
लीक द्वारा दी गयी परिभाषा से स्पष्ट होता हैकि संविदा एक करार है जो वैधानिक आधार पर किया जाता है और उसकेदो पक्षकार होते हैं। इस करार के अनुसार एक पक्षकार निश्चित दायित्व का निष्पादन करने के लिए बाध्य होता है और दूसरेपक्षकार को यह वैधानिक अधिकार होता है कि वह पहलेपक्षकार से उसके दायित्व का निष्पादन करा सके।
(4) लार्ड हाल्सबरी (Lord Halsbury) के अनुसार, संविदा दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच एक करार है जो राजनियम द्वारा प्रवर्तित कराने के उद्देश्य से किया जाता है और जिसका निर्माण एक पक्षकार द्वारा किसी कार्य को करने अथवा करने से दूर रहने के दूसरे पक्षकार के प्रस्ताव की स्वीकृति देने के परिणामस्वरुप होता है।
इस परिभाषा में बतलाया गया है कि संविदा दो या दो से अधिक पक्षकारों के बीच किया गया एक करार होता है जो कानून द्वारा प्रवर्तित कराने के उद्देश्य से किया जाता है। संविदा का निर्माण एक पक्षकार द्वारा किसी कार्य को करने अथवा न करने के बारे में प्रस्ताव करने तथा दूसरे पक्षकार द्वारा उस प्रस्ताव को स्वीकार करने के परिणामस्वरुप होता है।
(5) सर फ्रेडरिक पोलक (Sir Fredrick Pollock) के अनुसार, प्रत्येक करार एवं वचन जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होसंविदा होता है।
सर फ्रेडरिक पोलक द्वारा दी गयी परिभाषा संक्षिप्त एवं पूर्ण है। इस परिभाषा में सार रुप में यह कहा गया है कि जो करार राजनियम के प्रावधानों के अनुसार प्रवर्तनीय कराया जा सकता है, वही संविदा हो सकता है।
(6) भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (h) के अनुसार, “संविदा एक ऐसा करार है, जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है।
यह परिभाषा भी संक्षिप्त किन्तु पूर्ण है जिसके अन्तर्गत कहा गया है कि संविदा बनने के लिए किसी करार का राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होना आवश्यक है। जो करार राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय नही होता है, वह संविदा नही बन सकता है।
सर फ्रेडरिक पोलक एवं भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (h) मे दी गयी परिभाषाओं का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि संविदा के निर्माण करने के लिए दो बातों का होना आवश्यक है: प्रथम, पक्षकारों के बीच करार अथवा समझौते का होना, तथा द्वितीय, उस करार या समझौते का राजनियम द्वारा लागू होना ।
अब प्रश्न यह उठता है कि एक करार को राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय कब कराया जा सकता है? भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 10 में उन सभी लक्षणों को बताया गया है, जो एक करार को राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय कराने के लिए आवश्यक होते हैं । इस धारा के अनुसार, “सभी करार संविदा है,
  1. यदि वे उन पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से किये जाते हैं ,
  2. जिनमें संविदा करने की क्षमता है,
  3. जो वैधानिक प्रतिफल के लिए तथा वैधानिक उद्देश्य से किये जाते हैं
  4. और जो इस अधिनियम द्वारा स्पष्ट रुप से अवेध घोषित नही किये गये हैं ।
  5. इसके अतिरिक्त यदि भारत में प्रचलित किसी विशेष राजनियम द्वारा अनिवार्य हो तो करार लिखित हो, अथवा साक्षियों द्वारा प्रमाणित हो अथवा रजिस्टर्ड हो।
उपर्युक्त वर्णित सभी परिभाषाओं के विवेचन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि संविदा से आशय उस करार से है जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय कराया जा सकता है और जिसके अन्तर्गत एक पक्षकार का किसी काम को करने अथवा न करने के लिए वैधानिक दायित्व उत्पन्न होता है तथा दूसरे पक्षकार को पहले पक्षकार के विरुद्ध वैधानिक अधिकार प्राप्त होते।
वैध संविदा के आवश्यक लक्षण अथवा तत्व
संविदा की विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा एवं भारतीय संविदा अधिनियम में दी गयी उपरोक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से एक संविदा के निम्नलिखित लक्षण अथवा तत्व प्रकट होते हैं जिनका होना संविदा की वैधता के लिए नितान्त आवश्यक है:
  • (1) दो या दो से अधिक पक्षकारों का होना
  • (2) करार. प्रस्ताव एवं स्वीकृति
  • (3) पक्षकारों की आपस में वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा
  • (4) पक्षकारों में संविदा करने की क्षमता
  • (5) पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति
  • (6) वैधानिक प्रतिफल एवं उद्देश्य
  • (7) करार का स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित न होना
  • (8) यदि आवश्यक हो तो लिखित, प्रमाणित एवं रजिस्टर्ड होना
नोट : इन सभी लक्षणों का संक्षिप्त विवेचन नीचेकिया गया है:
(1) दो या दो से अधिक पक्षकारों का होना (Two or more parties) – एक वैध संविदा के लिए यह आवश्यक है कि उसमेदो या दो से अधिक पक्षकार होने चाहिए । कम से कम दो पक्षकारों का होना इसलिए आवश्यक होता है कि एक पक्षकार किसी कार्य को करने अथवा न करने के लिए प्रस्ताव करता है और दूसरा पक्षकार उस पर अपनी सहमति व्यक्त करता है। जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है कि संविदा में एक पक्षकार का दायित्व उत्पन्न होता है और दूसरे पक्षकार को कुछ वैधानिक अधिकार प्राप्त होते हैं । कोई भी एक व्यक्ति स्वयं ही प्रस्ताव एवं स्वीकृति दोनों कार्य एक साथ नही कर सकता है।
(2) करार : प्रस्ताव एवं स्वीकृति (Agreement : Proposals and Acceptance) – दो या दो से अधिक पक्षकारों के बीच करार या समझौता होना आवश्यक होता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2(e) के अनुसार, प्रत्येक वचन या वचनों को प्रत्येक समूह जिसमें एक वचन दूसरेका प्रतिफल होता हैकरार कहलाता है।  जब एक पक्षकार द्वारा किया गया प्रस्ताव दूसरे पक्षकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो वह वचन बन जाता है। करार के दोनों ही पक्षकार एक दूसरे को प्रतिफल के रुप में वचन देतेहैं ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं ‘ कि प्रस्ताव एवं स्वीकृति करार के अनिवार्य तत्व हैं । पक्षकारों के मध्य जो भी करार किया जावे वह सुनिश्चित होना चाहिए तथा निष्पादन योग्य होना चाहिए । उदाहरण के लिए, राम, श्याम को उसका स्कूटर 15000 रुपये में खरीदने का प्रस्ताव करता है और श्याम इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है, तो यह इन दोनों पक्षकारों के बीच करार होगा क्योंकि राम 15000 रुपये देने का वचन देता है और श्याम स्कूटर देने का वचन देता है। ये दोनों ही वचन एक दूसरे के प्रतिफल के रुप में हैं ।
(3) पक्षकारों की आपस में वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा (Intention of the parties to create Legal Relations) – वैध संविदा के लिए करार के पक्षकारों की आपस में वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा होना आवश्यक है। एक व्यक्ति द्वारा अपने मित्र के यहां भोजन का आमन्त्रण स्वीकार करना संविदा नही हो सकता है।
लॉर्ड स्टोवेल (Lord Stowell) ने एक विवाद के निर्णय में लिखा है कि, संविदा एक खाली समय का खेल नही होना चाहिएयह केवल आनन्द एवं हंसी-मजाक की वस्तु नही होना चाहिए जिसमें गम्भीर परिणामों की पक्षकारों द्वारा कभी इच्छा न की गयी हो । संविदा करते समय पक्षकारों के मस्तिष्क में यह बात उत्पत्र होना आवश्यक है कि उनके एक-दूसरे के प्रति वैधानिक दायित्व उत्पत्र हुए हैं एवं उन्हें एक; दूसरे के विरुद्ध उन दायित्वों को पूरा कराने के लिए वैधानिक अधिकार भी प्राप्त हुए हैं जिनका उपयोग वे आवश्यकता पड़ने पर कर सकतेहैं । उदाहरणार्थ , सामान का क्रय-विक्रय करने सम्बन्धी करार संविदा का रुप लेते हैं क्योंकि इन ठहरावों में पक्षकारों के मध्य वैधानिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं ।
(4) पक्षकारों में संविदा करने की क्षमता (Contractual Capacity of the Parties) – संविदा की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि पक्षकारों में संविदा करनेकी क्षमता होनी चाहिए । भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार केवल वे व्यक्ति ही संविदा करने की क्षमता रखते हैं
  • जो वयस्क हैं ,
  • स्वस्थ मस्तिष्क के हैं
  • और अधिनियम द्वारा संविदा के लिए अयोग्य घोषित नही किये गये हैं ।
यदि किसी करार का कोई पक्षकार अवयस्क है, अथवा अस्वस्थ मस्तिष्क का है, अथवा अधिनियम द्वारा संविदा करने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह करार संविदा का रुप धारण नहीं कर सकता है, क्योंकि इन व्यक्तियों का करार के सम्बन्ध में व्यक्तिगत रुप से कोई दायित्व उत्पन्न नहीं होता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि एक अवयस्क या अस्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति या अधिनियम द्वारा संविदा के लिए अयोग्य घोषित व्यक्ति जैसे राष्ट्रपति, विदेशी राजदूत तथा दिवालिया आदि पर वचन को पूरा करने के लिए न्यायालय में वाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
(5) पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति (Free Consent of the Parties) – संविदा के सभी पक्षकारों की करार की बातों के सम्बन्ध में स्वतन्त्र सहमति होनी चाहिए । सहमति से आशय करार के पक्षकारों का समान विचार रखतेहुए सभी बातों के लिए आपस में सहमत होने से है। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही बात पर एक ही भाव से सहमत होते हैं तो इसे सहमति कहते हैं । वैध संविदा के लिए केवल पक्षकारों की सहमति ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह सहमति पूर्णतः स्वतन्त्र होनी चाहिए । भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार निम्नलिखित तत्वों के आधार पर प्राप्त सहमति स्वतन्त्र नही मानी जाती है :
  • (i) उत्पीड़न
  • (ii) अनुचित प्रभाव
  • (iii) कपट
  • (iv) मिथ्या-वर्णन अथवा मिथ्या-कथन
  • (v) गलती ।
करार की सभी बातें स्पष्ट एवं सुनिश्चित होनी चाहिए तथा पक्षकारों की सहमति उपर्युक्त पाँच तत्वों को छोड़कर स्वतन्त्र रुप से प्राप्त की जानी चाहिए ।
(6) वैधानिक प्रतिफल एवं उद्देश्य (Lawful Consideration and object) – संविदा के राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए वैधानिक प्रतिफल का होना आवश्यक होता है। प्रतिफल से तात्पर्य वचनग्रहीता द्वारा वचनदाता की इच्छा पर किये गये कार्य अथवा कोई कार्य करने अथवा कार्य करने से विरत रहने के लिए दिये गये वचन से है। करार में प्रतिफल ही इस बात का स्वयंसिद्ध प्रमाण है कि पक्षकार आपस में वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा रखते हैं ।
इसके अतिरिक्त करार का उद्देश्य भी न्यायोचित होना चाहिए । करार देश में प्रचलित किसी भी राजनियम के प्रावधानों को निष्फल करने वाला अथवा उन पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला नही होना चाहिए । उस करार का उद्देश्य कपटपूर्ण , अनैतिक तथा लोकनीति के विरुद्ध नही होना चाहिए ।
(7) करार का स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित न होना (Agreement must not be expressly declared void) – संविदा की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि वह करार स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित किये गये ठहरावों में से नही होना चाहिए । भारतीय संविदा अधिनियम द्वारा निम्नलिखित ठहरावों को स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित किया गया है जिनको सामान्य परिस्थिति में राजनियम द्वारा प्रवर्तित नही कराया जा सकता है :
  • (i) संविदा के अयोग्य पक्षकारों द्वारा किये गये करार ।
  • (ii) जब करार के दोनों पक्षकार करार के किसी आवश्यक तथ्य के विषय में गलती पर हों।
  • (iii) अवैधानिक प्रतिफल एवं उद्देश्य वाले करार ।
  • (iv) कुछ अपवादों को छोड़कर बिना प्रतिफल वाले करार ।
  • (v) अवयस्क के अतिरिक्त विवाह में रुकावट डालने वाले करार ।
  • (vi) व्यापार में रुकावट डालने वाले करार ।
  • (vii) वैधानिक कार्यवाही में रुकावट डालने वाले करार ।
  • (viii) अनिश्चित अर्थ वाले करार ।
  • (ix) बाजी के करार ।
  • (x) असम्भव कार्य को करने के करार ।
(8) यदि आवश्यक हो तो लिखित प्रमाणित एवं रजिस्टर्ड होना – वैध संविदा का एक आवश्यक लक्षण यह है यदि भारतीय संविदा अधिनियम अथवा देश में प्रचलित किसी अन्य राजनियम द्वारा अनिवार्य हो तो करार लिखित अथवा साक्षियों द्वारा प्रमाणित अथवा रजिस्टर्ड होना चाहिए । यदि इन वैधानिक औपचारिकताओं का पालन नही किया गया तो वह करार राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय नही कराया जा सकता है। कुछ प्रमुख संविदा जिनका राजनियम द्वारा लिखित होना अनिवार्य है, निम्नलिखित है:
  • (i) बीमा संविदा;
  • (ii) पंचनिर्णय का समझौता;
  • (iii) अवधि वर्जित ऋण के भुगतान का वचन ;
  • (iv) कम्पनी के पार्षद सीमा नियम एवं पार्षद अन्तर्नियम;
  • (v) तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए किये गये पट्टे के करार;
  • (vi) चैक, बिल, प्रतीज्ञा-पत्र एवं हुण्डी आदि विनियमसाध्य प्रलेख ।
  • निम्नलिखित कुछ ऐसे करार हैं जो राजनियम द्वारा लिखित एवं रजिस्टर्ड होने आवश्यक हैं :
  • (i) स्वाभाविक प्रेम एवं स्नेह के कारण निकट सम्बन्धियों के बीच बिना प्रतिफल के लिए किया गया संविदा;
  • (ii) कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत कम्पनी के पार्षद् सीमानियम, पार्षद् अन्तर्नियम तथा चलायमान प्रभारों का रजिस्ट्रेशन;
  • (iii) सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम 1882 के अन्तर्गत 100 रुपये से अधिक मूल्य की अचल सम्पत्ति के हस्तान्तरण सम्बन्धी संविदा;
  • (iv) ऐसे प्रलेख जिनका रजिस्ट्रेशन, रजिस्ट्रेशन अधिनियम 1908 के अन्तर्गत आवश्यक है जैसे – अचल सम्पत्ति को भेंट करने सम्बन्धी प्रलेख, एवं किसी बच्चे को गोद लेन सम्बन्धी प्रलेख आदि ।
(9) निश्चितता (Certainty) – वैध संविदा का एक आवश्यक लक्षण यह भी है कि उसमें निश्चितता का गुण होना चाहिए । जिन ठहरावों में अर्थ , विषयवस्तु, निष्पादन का तरीका, वस्तु का मूल्य आदि निश्चित नही है अथवा निश्चित किया जाना सम्भव नहीं है, उनको विधि द्वारा प्रवर्तित नही कराया जा सकता है। इस प्रकार के करार संविदा नही हो सकते हैं ।
(10) निष्पादन की सम्भावना (Possibility of Performance) – प्रत्येक करार का मुख्य उद्देश्य उसका निष्पादन करना होता है। अत: यह आवश्यक है कि पक्षकारों द्वारा करार के अन्तर्गत उत्पत्र दायित्वों का निष्पादन किया जाना सम्भव होना चाहिए । यदि करार ऐसा है जिसका निष्पादन किया जाना सम्भव नहीं है तो वह करार वैध संविदा नहीं बन सकता है। कुछ करार ऐसे होते हैं जिनका निर्माण के समय तो निष्पादन किया जाना सम्भव होता है परन्तु बाद में कुछ कारणों से निष्पादन किया जाना असम्भव हो जाता है जैसे- विषयवस्तु का नष्ट हो जाना, युद्ध या आन्तरिक अशान्ति की स्थिति उत्पन्न होना तथा राजनियम में परिवर्तन होना आदि;। अत: एक वैध संविदा के लिए करार का निष्पादन किया जाना सम्भव होना चाहिए ।
करार एवं संविदा में अन्तर
वैध संविदा के आवश्यक लक्षणों का अध्ययन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि संविदा के निर्माण के लिए करार का होना आवश्यक है, परन्तुप्रत्येक करार संविदा हो , यह आवश्यक नहीं है। जिस करार में एक वैध संविदा के सभी लक्षण पाये जाते हैं , वह करार संविदा माना जायेगा । इसके विपरीत जिस करार में वैध संविदा के आवश्यक लक्षणों में से एक या अधिक का अभाव होगा, वह करार संविदा नहीं होगा । इस सम्बन्ध में यह कथन पूर्णतः सही है कि ‘ ‘समस्त संविदा करार हैं , किन्तु समस्त करार संविदा नहीं होते। इस कथन का विश्लेषण करने से तीन बातें स्पष्ट होती है :
(1) करार संविदा की आधारशिला होती है क्योंकि बिना करार के संविदा हो ही नहीं सकता है। संविदा के निर्माण के लिए करार का होना आवश्यक है। अत: समस्त संविदा करार होते हैं ।
(2) करार का क्षेत्र संविदा की अपेक्षा अधिक व्यापक होता है। जिन ठहरावों में प्रवर्तनीयता का गुण पाया जाता है, केवल वे करार ही संविदा होते हैं । इसके विपरीत ऐसे करार भी होते हैं जिनको राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय नही कराया जा सकता है, जैसे – सामाजिक करार, पारिवारिक करार, राजनैतिक करार, धार्मिक करार, संविदा करने के अयोग्य पक्षकारों द्वारा किये गये करार, बिना प्रतिफल वाले करार, अवैधानिक उद्देश्य एवं प्रतिफल वाले करार, स्पष्ट रुप से व्यर्थ घोषित करार इत्यादि । अत: समस्त करार संविदा नहीं होतेहैं ।
(3) करार एवं संविदा में अन्तर होता है। इन दोनों में निम्नलिखित आधारों पर अन्तर किया जा सकता है-

करार एवं संविदा में अंतर – Differences Between Agreements and Contracts.



संविदा अनेक प्रकार के होते हैं जिनको निम्नलिखित तीन आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है–संविदाओं के प्रकार – Types of Contracts

प्रवर्तनीयता के आधार पर :-
  • (1) वैध संविदा (Valid Contracts)
  • (2) व्यर्थ संविदा (Void Contracts)
  • (3) व्यर्थनीय संविदा (Voidable Contracts)
  • (4) अवैध संविदा(Illegal Contracts)
  • (5) अप्रवर्तनीय संविदा (Unenforceable Contracts)
उत्पत्ति के आधार पर :-
  • (1) स्पष्ट संविदा (Express Contracts
  • (2) गर्भित संविदा (Implied Contracts)
निष्पादन के आधार पर :-
  • (1) निष्पादित संविदा (Executed Contracts)
  • (2) निष्पादनीय संविदा (Executory Contracts)
तो दोस्तों मुझे पूरी उम्मीद है कि ये आर्टिकल भारतीय संविदा अधिनियम 1872 को समझने में आपकी बहुत हेल्प करेगा, आप इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर कीजिये और फायदा उठाईए!

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